F श्री रामचरितमानस: बालकाण्ड: ब्राह्मण-संत वंदना - Ram Deshik Prashikshan
श्री रामचरितमानस: बालकाण्ड: ब्राह्मण-संत वंदना

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श्री रामचरितमानस: बालकाण्ड: ब्राह्मण-संत वंदना

श्री रामचरितमानस: बालकाण्ड: ब्राह्मण-संत वंदना

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श्री रामचरितमानस: बालकाण्ड: ब्राह्मण-संत वंदना

प्रथम पृथ्वी के देवता संतजनों के चरणों की वंदना करता हूँ जो मोह से उत्पन्न होने वाले सभी संशय तथा भ्रम दूर करते हैं । ऐसा संतों का समाज सब गुणों की खान है, उनके चरणों मे उत्तम वाणी से मैं प्रेम सहित प्रणाम करता हूँ । 

साधु का पवित्र गुण कपास के सदृश है जो निरस होने पर भी जिसका फल पवित्र और गुणयुक्त है । जो स्वयं दुःख को सहन करके भी दूसरों के बदन को ढकता है इसी प्रकार साधु महान दुःखों को सहन कर के भी दूसरों का हित करता है । इसलिए साधु जगत् वंदनीय है और सारे जगत् में उसका यश फैला है ।

आनंद और मंगल के देने वाला संतों का समाज जगत् में चलता फिरता तीर्थो राजा है। संत समाज रूपी प्रयागराज में भगवान की भक्ति का वर्णन दिव्य गंगा की धारा है, स्वरस्वति ब्रह्म का विचार और उसका प्रचार है और कलियुग के मल को नष्ट करने वाली कर्म कथा का वर्णन ही यमुना की धारा है । सत्संग रूपी गंगा की धार में भगवान विष्णु और शंकर की कथा ही त्रिवेणी की धार है जिसके सुनने से मोद मंगल की प्राप्ति होती है ।

जो सन्तों का सत्संग सुनकर प्रेम सहित समझेंगे वे ज्ञान गंगा में गोता लगाकर जीवन के चार फल जो इस तन में हैं -ध्यान, सुमिरन, नाद और अमृतपान प्राप्त कर लेंगे। अतः संतों का समाज ही प्रयाग राज है । जिसमें गोता लगाने पर जीव भव बन्धन से मुक्त हो जाता है । ।। दो२६ ।।

संत समाज रूपी प्रयागराज में हृदय स्थित ईश्वर की अनुभूति ही मानव धर्म है, उसमें अटल विश्वास ही अक्षय बट है । वह संत समाज सभी को सब देशों में, सभी दिनों में सुलभ है जिसकी सेवा करने से तुरन्त ही कलेशों का नाश जाता है । 

यह शुभ कर्म करने वाला संतों का समाज अलौकिक और अकथनीय तीरथराज है। यह उत्तम फलों को देनेवाला है और इस का प्रभाव भी प्रत्यक्ष ही प्रगट है । सत्संगरूपी गंगा में स्नान करने का फल तत्काल ही ऐसा देखने में आता है कि कौवे के स्वभाव वाला मनुष्य कोयल और बगुले के स्वभाव वाला मनुष्य हंस के स्वभाव को ग्रहण करता है ।

बाल्मीकि, नारद और अगस्त मुनि ने अपने-अपने मुंह से अपने जीवन का वृतांत कहा कि किस प्रकार से वे सत्संग के द्वारा परमगति को प्राप्त हुए । जल में रहने वाले जीव, पृथ्वी पर रहने वाले जानवर और आकाश में उड़ने वाले पक्षी आदि जितने भी चल और अचल इस संसार में हैं इनमें से जिसने भी सदगति, उत्तम मति कीर्ति और ऐश्वर्य भलाई जिस प्रकार और जहाँ भी पाई है वह केवल सत्संग का ही प्रभाव है। बिना सत्संग के लोक और वेद में भी कोई दूसरा उपाय नहीं है ।

यह सुनकर कोई आश्चर्य न करें क्योंकि सत्संग का प्रभाव छिपा नहीं है। बिना सत्संग के विवेक नहीं होता और संत प्रभु की कृपा के बिना नहीं मिलते। संतो की संगति ही मोद और मंगल का मूल है, उनसे जो ज्ञान की प्राप्ति होती है वह ज्ञान, फल और उसके सब साधन फूल हैं । सन्तों की संगति पाकर दुष्ट जन भी सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है 1

श्री सुकदेव जी, सनक आदि संत और नारद आदि जो मुनियों में श्रेष्ठ और विज्ञान में निपुण हैं मैं उन सब के चरणों में पृथ्वी पर सिर टेककर प्रणाम करता हूँ, मुनीश्वरो ! आप सब मुझे अपना दास जानकर कृपा करें। विधाता, विष्णु, शिव तथा ज्ञानी और विज्ञानियों की वाणी भी साधु की महिमा कहने में सकुचाती है । वह मुझ से कैसे नहीं कही जाती जैसे साक बेचने वाले मणियों के गुण का वर्णन नहीं कर सकते ।

मैं संतों की वंदना करता हूँ, संतों का चित सब के लिए समान है उनका जगत न कोई शत्रु हैं और न कोई मित्र । जिस प्रकार पुष्प दाएं और बाएं दोनों हाथ की अंजली में समान रूप से सुगंध देते हैं उसी प्रकार संतजन भी सब को ज्ञान देते हैं। संतों का हृदय सरल स्वभाव जगत् के हित के लिए है । उनका ऐसा प्रेम जानकर विनय करता हूँ वे कृपा कर के प्रभु के चरणों में प्रेम दें । ।। दो२७-२८ ।।

मैं महाबीर श्री हनुमान जी की वंदना करता हूँ जिन के यश का वर्णन स्वयं राम ने किया है। वानरराज सुग्रीव, रीछराज जामवंत और निशिचरपति विभीषण तथा अंगद आदि जितना भी भक्त शिरोमणियों का समाज है, जिनका मन राम के चरण कमलों में भौरे की भाँति लुभायमान है, कभी भी साथ नहीं छोड़ता, मैं उन सबके चरण कमलों की वंदना करता हूँ जो प्रभु के निष्काम दास हैं । " जो कोई भी कर्म अपनी कामना से न करके प्रभु की आज्ञा से ही करते हैं । प्रभु की सेवाभक्ति ही जिनकी इच्छा रहती है।

मैं पवन के अवतार श्री हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ जो दुष्टों के समूह रूपी वन को जलाने के लिए अग्नि के समान और ज्ञान के प्यासों के लिए बादल के समान ज्ञान की वर्षा करने वाले हैं। जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष बाण धारण किए राम सदा निवास करते हैं ।

वाणी और वाणी का अर्थ जल और लहर के समान है। जिस प्रकार स्वर और स्वर से उत्पन्न होने वाले व्यंजन कहने में अलग कहे जाते हैं परन्तु अलग हैं नहीं क्योंकि कोई भी व्यंजन स्वर के बिना उच्चारण नहीं होता। ऐसे ही नाम और नामी में अन्तर नहीं हैं। मैं उनके चरणों की वंदना करता हूँ जिन्हें दुखी प्यारे हैं ।

मैं संतों और असंतों दोनों की वन्दना करता हूं, ये दोनों ही दुःखदाई हैं । इनमें अंतर यह है कि संत जब बिछुड़ते हैं तो प्राण निकलने के समान दुःख देते हैं और जब असंत मिलते हैं तो वे भी महान दुःख देते हैं । ये दोनों जगत् में एक साथ उत्पन्न होते हैं । 

श्री रामचरितमानस: बालकाण्ड: ब्राह्मण-संत वंदना


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