भक्तमाल की पावन कथा bhaktamal ki pavan katha
भक्तों का वात्सल्यभावसे पालन-पोषण करनेके लिये श्रीगोपाली बाईके रूपमें मानो श्रीयशोदाजीने ही अवतार लिया था।
इनके अंग-प्रत्यंगमें प्रेम प्रकट था। ये नित्य-नियमसे अपने मोहनलालकी सेवा करती थी। कलियुग के दोष-पाप आपके तन-मनको छूतक नहीं पाये थे और भक्तोंसे किसी प्रकारका छल-कपट आपने नहीं रखा।
आपकी वाणी सहज ही शीतल एवं सुख देनेवाली थी।
आप श्रीगोविन्दभगवान्के नाम को सदा रटती रहती थी। भक्ता एवं पतिव्रता स्त्रियोंके सभी शुभ लक्षण एवं कलाएँ आपमें विद्यमान थीं। भावसे धीर-गम्भीर एवं सन्तोंमें श्रद्धा-भक्ति रखनेवाली श्रीगोपालीबाईका अन्तःकरण सदा परम पवित्र था। इन्होंने वात्सल्यरसमयी भक्ति अपने हृदयमें धारण की॥ १९५ ॥
श्रीगोपालीजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है- श्रीगोपालीजी भगवान् श्रीकृष्णकी वात्सल्यभावसे भावित भक्त थीं। श्रीयशोदाजी ही भक्तिमती गोपालीके रूपमें गोलोकसे पृथ्वीपर आ गयी थीं।
वही आवेश आपके अंगमें था। प्रेमसे मोहनलालकी सेवा करती थीं। एक बार इनकी भक्तिपर रीझकर प्रभु एक सन्तका वेश धारणकर इनके घरपर पधारे।
उस समय गोपालीबाई श्रीठाकुरजीको भोग लगा रही थीं। सन्त भगवान्का सत्कार करके प्रसादसे भरी थाली लाकर बाईने सन्तके सामने रखकर प्रार्थना की-'प्रसाद पाइये।'
सन्तने कहा- पहले भगवान्को पवाओ। बाईने कहा-भगवान् तो गन्धमात्र ग्रहण करते हैं, मैं उन्हें कैसे पवाऊँ ? सन्तने कहा- यदि आप अपने हाथसे उनके श्रीमुखमें ग्रास दे दें तो वे अवश्य ही खायेंगे।
बाईने मन्दिरमें थाल ले जाकर अपने हाथसे भगवान्के मुखमें ग्रास दिया। बड़े प्रेमसे भगवान्ने खा लिया। इससे बाईको बड़ा-भारी सुख हुआ, वे प्रेममें विभोर हो गयीं।
जिस सन्तकी कृपासे यह अभूतपूर्व आनन्द मिला, उस सन्तको भोजन करानेकी उत्कण्ठासे मन्दिरके बाहर आयीं, पर सन्तके दर्शन न हुए। अब इन्हें बड़ी बेचैनी हुई। आप समझ गयीं, कि वे सन्त भगवान् ही थे।
फिर आप मन्दिरमें श्रीठाकुरजीको पवाने लगीं। इस बार प्रभुने कुछ भी नहीं खाया। तब ये अधीर होकर रुदन करने लगीं।
उसी समय आकाशवाणी हुई कि एक बार मैंने तुम्हारे प्रेमसे खा लिया। अब तम आग्रह न करो। मैं रसका आस्वादन अपने भक्तोंकी रसनासे करता हूँ।
तुम भक्तोंकी उनकी रुचिके अनुसार भोजन कराओ, उनकी सेवा करो।
बाईने जानकर सीरा बनाकर भोग लगाया और सन्तोंके सामने रख दिया। सन्तोंके मनमें आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन सन्तोंने आपसमें बातचीत करके खीर भोग आरोगनेकी इच्छा की। तो बाईने खीर ही खवाई।
तीसरे दिन सिखरन-भातकी इच्छा हुई, तो बाईने सिखरनभात ही पवाया। आश्चर्यचकित होकर सन्तोंने पूछा-तो आपने बताया कि मुझे सन्त-भगवन्तका आशीर्वाद मिल गया है अत: उसका ज्ञान हो गया है।
फिर कभी दो सन्त पधारे, उन्होंने इच्छा की कि हमारे वस्त्र फट गये हैं। तो गोपालीबाईके यहाँ पहुँचकर उनसे नये वस्त्र ले लेंगे।
इस इच्छासे आये सन्तोंको भोजन कराकर बाईने वस्त्र अर्पण करके कहा कि जो इच्छा हो सो बनवा लो। सन्तोंने त्याग दिखाया और वस्त्र लेनेसे इनकार कर दिया, तब बाईने कहा-'जब आप वस्त्रकी इच्छा करके आये हैं, तब फिर अब क्यों अस्वीकार करते हैं?
सन्तोंने गोपालीके चरणोंकी वन्दना की और आशीर्वादके साथ वस्त्र प्राप्त किये। इस प्रकार इनका सुयश संतो में फ़ैल गया।