जानें सत्संग की महिमा satsang ki mahima

जानें सत्संग की महिमा satsang ki mahima

  जानें सत्संग की महिमा satsang ki mahima

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क्रीडास्पदं बालकानां यूनां भोगास्पदं जगत् । 
चिन्तास्पदं तु वृद्धानां ज्ञानी तत्रातिरिच्यते ।।

यह संसार बच्चों के खेलने का स्थान है । युवकों की भोग भूमि और वृद्धों के चिन्ता का स्थान है । विचारवान पुरूष की न तो यह क्रीडाभूमि है, न भोग भूमि है, न चिन्ता का स्थान ही है, उनके लिए तो ये साधन भूमि है | वे बचपन से ही मोक्ष के साधन में लग जाते हैं और सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं ।

 इस असार संसार में तीन वस्तुयें सार हैं सत्पुरूषो का सङ्ग., भगवान् की भक्ति और गंगा का स्नान । इनमें भी सबसे प्रथम सत्सङ्ग. सतां सङ्गोहि भेषजम् ।।

सत्पुरूषों के संग से ही नारद जी जो दासी पुत्र थे वे भगवान् के पार्षद बन गए ।

महापुरूषों का संग बड़ा दुर्लभ है, हर कोई उनके पास नहीं जा सकता यदि कोई उनकी सन्निधि में पहुंच गया उसका अवश्य कल्याण हो जाता है उनका सानिध्य व्यर्थ नहीं जाता । इसी बात को नारद जी ने सूत्रों में कहा है -

महत् संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघच्श्च लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ।।

महापुरूषों का संग दुर्लभ होता है अगम्य और अमोध होता है । वह केवल भगवान् की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है । दुःसग.: सर्वथैव त्याज्य: ।। दुःसंग को सर्वथा छोड़ देना चाहिए ।

तरंगायितापीमे सङ्गात् समुद्रायन्ति ।।

तरंग के समान भी विषय वासना कुसंग से समुद्र का रूप धारण कर लेती हैं इसलिए कुसंग से बचना चाहिए ।

बरू भल वास नरक कर ताता, दुष्ट सग नहि देइ विधाता। 
कस्तरति कस्तरति मायां यः संगास्त्यजति, 
यो महानुभाव सेवते निर्ममो भवति, 
स तरति स तरति स लोकांस्तारयति।।

भगवान् की माया से छुटकारा किसको मिलता है? जो दुःसंग को छोड़कर महापुरूषों की सेवा करता है, ममता को त्यागकर स्वयं तर जाता है और दूसरों को भी तार देता है । स्वयं तीर्णः परान् तारयति ।। जो स्वयं तीर्ण है वह दूसरों को भी तार देता है | स्वयं मनः परान् मज्जयति ।। जो स्वयं डूब रहा है वह दूसरों को भी डूबा देता है ।

चन्दनं शीतलं लोके चन्दनापि चन्द्रमा । 
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।

संसार में चन्दन शीतल माना जाता है । चन्दन से भी अधिक शीतल चन्द्रमा माना गया है और साधु संगति इन दोनों से बढ़कर है। विषयासक्ति, जीव का दृढ़ पाश है, दृढ़ बन्धन है वही आसक्ति । यदि साधुओं में हो जाय तो यही मोक्ष का खुला हुआ दरवाजा है ।

तितिक्षवः कारूणिकाः सुहृदः सर्व देहिनाम् । 
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणा: ।।

साधु तितिक्षु होते हैं, कारूणिक होते हैं, दयालु होते हैं, प्राणी मात्र के हितैषी होते हैं, कोई उनका शत्रु नहीं होता इसलिए परम शान्त होते हैं ऐसे साधु सन्तशिरोमणि माने जाते हैं ।

मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढ़ा । 
मत्कृते त्यक्तक्रर्माणस्त्यक्तस्वजनबान्धवाः ।। 

सन्त मेरे अनन्य भक्त होते हैं मेरे लिए सब कुछ त्याग देते हैं ।

मदाश्रयाः कथामृष्टा: श्रृण्वन्ति कथयन्ति च । 
तपन्ति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतसः ।।

सन्त मेरी मंगलमय कथाओं का श्रवण करते हैं, वर्णन करते है इसलिए वे सब तापों से निवृत्त रहते हैं । साधु लोग सब प्रकार की आसक्ति से रहित होते हैं ऐसे विरक्त साधुओं का संग करना चाहिए क्योंकि वे कुसंग से प्राप्त हुए दोषों का अपहरण कर लेते हैं, तथा अपने जैसा निर्मल बना देते हैं ।

श्री भगवान् उद्धव से कहते हैं -

बुद्धिमान पुरूष को चाहिए कि वह कुसंग को छोड़कर सत्पुरूषों की शरण में चला जाय । वह पुरूष अपनी उक्ति और युक्ति से विषयासक्ति को नष्ट कर देते हैं । सन्तों की आठ विशेषतायें हैं -

सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिन । 
निर्ममा निरहंकारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ।।

सन्तों को किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती है वे बिना चाय के रह सकते हैं, बिना दूध के रह सकते हैं, बिना मकान के रह सकते हैं क्योंकि उनका चित्त मेरे में लगा रहता है, निरन्तर मेरा चिन्तन करते रह सन्तों के हृदय राग-द्वेष से रहित होने के कारण शान्त रहते हैं.. ।

 समदर्शी होते हैं, कहीं उनकी ममता नहीं होती क्योंकि देहादिक । उनका अंहकार नहीं होता, सुख-दुःख शीतोष्ण आदि को सहन कर वाले होते हैं और किसी प्रकार का परिग्रह अर्थात् सग्रह नहीं करते। सन्त संसार सागर में डूबते हुए प्राणियों के लिए नौका के समान होते हैं |

 वे ब्रह्मज्ञानी होते हैं, ब्रह्मनिष्ठ होते हैं और परम शान्त होते, अन्न प्राणियों का जीवन माना गया है, और दुःखी प्राणियों का रक्षक मैं हूँ | मरने के बाद मनुष्यों का धन धर्म ही माना गया है, धर्म ही उसके साथ जाता है । संसार में फंसने का जिसको भय हो उस भय को सन्त ही निवृत्त कर सकते हैं ।

सन्तो दिशन्ति चढूंषि वहिरर्क: समुत्थितः । 
देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च ।।

सूर्य उदित होकर हमको बाहृ नेत्र प्रदान करते हैं जिनसे हम बाहर की वस्तु देख सकते हैं, परन्तु सन्त हमको वह चक्षु देते हैं जिसस सगुण-निर्गुण परमात्मा का हमको ज्ञान हो जाता है । इसलिए सन्तो का देवता के समान पूजन करना चाहिए, बन्धु बान्धव के समान उनका सत्कार करना चाहिए, अपनी आत्मा के समान उनसे प्रेम करना चाहिए। तथा सन्तों को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिए ।

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