भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण prahlad story summary in hindi

यदि आप अपने मनमें भगवत्-सम्बन्धी वासना बनायेंगे तो आप किस जातिके हैं, यह बात आपसे नहीं पूछी जायेगी। जैसे, प्रह्लाद दैत्य-वंशमें पैदा हुए थे, उनकी माता कोई बहुत ऊँचे वंशकी नहीं थी और उनके पिता हिरण्यकशिपु तो अभिशप्त थे-भगवान्के परम भक्त सनकादिकोंके शापसे वे असुर हो गये थे। तो पिता भी अच्छा कहाँ हुआ और माता भी अच्छी कहाँ हुई?
फिर भी इनके पुत्र प्रह्लादकी भगवान्ने पग-पग पर रक्षा की और उन्हें अपना साक्षात्कार कराया।
इस विषयमें राजा परीक्षितके मनमें एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ, जिसका समाधान श्रीशुकदेवजी महाराजने श्रीमद्भागवतके 'सप्तमस्कन्ध में किया है। राजा परीक्षित श्रीशुकदेवजी महाराजसे प्रश्न करते हैंमहाराज, एक बात बताइये कि जब ईश्वर सम हैं, ईश्वर सबके लिए आनन्ददाता हैं, ईश्वर सबके हितकारी हैं और किसी निमित्तसे नहीं हैं, स्वयं हैं अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंके लिए सम हैं, प्रिय हैं, सहद हैं, फिर वे इन्द्रके लिए दैत्योंको क्यों मारते हैं?
यह तो जिसके हृदयमें विषमता भरी होती है, राग-द्वेष भरा होता है, वह ऐसा करता है। भगवान्के हृदयमें तो राग-द्वेष है नहीं, फिर वे ऐसा क्यों करते हैं? देवताओंका पक्ष लेकर दैत्योंको क्यों मारते हैं?
अब देखो,थोड़ा-सा वेदान्ती लोग ध्यान दें। भगवान्में तीन गुण बताये-समता, प्रियता और सुहृदता। यह समता कहाँसे आती है? ज्ञानीसे पूछो कि तुम कौन हो? तो बोलेगा-'सर्वाधिष्ठान अद्वितीयब्रह्म' । अब, जो लोग तुम्हारे अद्वय ब्रह्म-स्वरूपको नहीं जानते, वे तुममें अध्यास करते हैं।
माने तुमको रागी समझते हैं, तुमको द्वेषी समझते हैं। अध्यस्त चाहे कुछ भी हो, रज्जुमें चाहे कोई भी कल्पनाकी जाये साँपकी, मालाकी, दण्डकी वह जो ज्यों-का-त्यों सम है। कारण, किसी भी अध्यस्त वस्तुके साथ अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं होता। दूसरे लोग हमारे स्वरूपमें चाहे जो भी कल्पना करें, हमारा स्वरूप उन कल्पनाओंसे अछूता ही रहता है, अस्पृष्ट ही रहता है।
यह अधिष्ठान-स्वरूपगत जो समता है वह ईश्वरमें भी प्रकट होती है
क्योंकि वही अधिष्ठान सद्वस्तु जो है वह मायामें प्रतिबिम्बित होती है। तो, मायाकी उपाधि होने पर भी और मायाकी उपाधिसे उपहित होने पर भी ईश्वर सम रहता है!
अब दूसरी बात देखो कि वह प्रिय है! तो भाई मेरे, ब्रह्म आनन्दस्वरूप है कि नहीं? बोले कि अपने आत्माके रूपमें परम प्रेमास्पद है। यहाँ तक कि माया-देशमें उसकी जो परछाँई पड़ती है, वह भी प्रियताको, आनन्दको उँडेलती रहती है।
यह सच्चिदानन्दकी,घनब्रह्मकी परछाँईका नाम ईश्वर है, ऐसा बोलते हैं आभासवादी, प्रतिबिम्बवादी और माया उपाधिसे अवच्छिन्न सच्चिदानन्द ही साक्षात् ब्रह्म है, यह बोलते हैं अवच्छेदवादी और माया-छाया कल्पित है, परब्रह्मके सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं, यह बोलते हैं ब्रह्मवादी। अब आप देखो, वही आनन्द मायामें प्रतिबिम्बित हुआ तो ईश्वर आनन्द रूप है।
सबके लिए प्रिय-ही-प्रिय है संबको वह रस देता है, स्वाद देता है! विषके कीड़ेको वह विषमें भी मजा दे देता है, मांस खानेवालेको वह मांसमें भी आनन्द दे देता है, सोने वालोंको सोने में भी आनन्द दे देता है और काम करनेवालोंको काममें भी आनन्द देता है । तात्पर्य यह है कि वह सबको आनन्द देता है और सबका प्रिय है! तीसरी बात है कि वह सुहृद है-सर्वदा सबका हित करता है। सम है विषम नहीं है, प्रिय है अप्रिय नहीं है और सुहृद है; दुहृद नहीं है।
अब दूसरी बात देखो कि वह प्रिय है! तो भाई मेरे, ब्रह्म आनन्दस्वरूप है कि नहीं? बोले कि अपने आत्माके रूपमें परम प्रेमास्पद है। यहाँ तक कि माया-देशमें उसकी जो परछाँई पड़ती है, वह भी प्रियताको, आनन्दको उँडेलती रहती है।
यह सच्चिदानन्दकी,घनब्रह्मकी परछाँईका नाम ईश्वर है, ऐसा बोलते हैं आभासवादी, प्रतिबिम्बवादी और माया उपाधिसे अवच्छिन्न सच्चिदानन्द ही साक्षात् ब्रह्म है, यह बोलते हैं अवच्छेदवादी और माया-छाया कल्पित है, परब्रह्मके सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं, यह बोलते हैं ब्रह्मवादी। अब आप देखो, वही आनन्द मायामें प्रतिबिम्बित हुआ तो ईश्वर आनन्द रूप है।
सबके लिए प्रिय-ही-प्रिय है संबको वह रस देता है, स्वाद देता है! विषके कीड़ेको वह विषमें भी मजा दे देता है, मांस खानेवालेको वह मांसमें भी आनन्द दे देता है, सोने वालोंको सोने में भी आनन्द दे देता है और काम करनेवालोंको काममें भी आनन्द देता है । तात्पर्य यह है कि वह सबको आनन्द देता है और सबका प्रिय है! तीसरी बात है कि वह सुहृद है-सर्वदा सबका हित करता है। सम है विषम नहीं है, प्रिय है अप्रिय नहीं है और सुहृद है; दुहृद नहीं है।
इसीसे देखो, जिसको हम ज्ञानी पुरुष कहते हैं उसकी चर्चा छोड़ दो, जीवमें भी यदि ये गुण आ जाय वह सबके साथ समता बरते, सबको प्यार करे और सबका भला चाहे तो ज्ञान स्वरूप भगवान् जो है वह सबके हृदयमें सुष्ठ-ज्ञान देनेके लिए बैठा हुआ है-यह हित है, यह हित है, यह हित है। तो, अधिष्ठान-स्वरूपका प्रतिबिम्बिन है सम, चित्-स्वरूपका प्रतिबिम्बन है सुहृद और आनन्द-स्वरूपका प्रतिबिम्बन है प्रिय।
यह जैसे ब्रह्म-चैतन्यमें है, वैसे ही ईश्वर-चैतन्यमें है और आत्म-चैतन्यमें भी ठीक-ठीक वैसा ही है ।
पर, कभी यदि अज्ञान-वश अपने में विषमताका आरोप हो जाय और हम अपनेको किसीका शत्रु-मित्र मान लें, तो, उस समय हम ब्रह्म-चैतन्यसे, ईश्वर-चैतन्यसे, आत्म-चैतन्यसे विमुख हो जाते हैं।
तो स्वयंका अर्थ है-निर्निमित्त भूतानां भगवान् स्वयं भूत-प्रेत भेंट चढ़ानेसे खुश होते हैं, नौकर-चाकर इनाम देनेसे खुश होते हैं, साहब-मिनिस्टर रिश्वत मिलनेसे खुश होते हैं और भगवान् कैसे खुश होते हैं? बोले-स्वयं समः स्वयं प्रियः स्वयं सुहृद । देखो, महात्मा एक दृष्टिसे ईश्वरसे बड़ा होता है।
इसका यह मतलब नहीं कि हम ईश्वरसें बड़े हैं, या ईश्वर हैं परन्तु महात्माकी जो आत्मा है और महात्माकी जो बुद्धि है, दोनोंके बीचमें ईश्वरका निवास है। महात्मा पहले ईश्वरको देखता है, फिर बुद्धिको और फिर संसार देखने में आता है।
धियो यो नः प्रचोदयात् । बुद्धिका प्रेरक है परमेश्वर और दृष्टा साक्षी अद्वितीय ब्रह्म है महात्मा । तो, ब्रह्म-चेतनाकी अपेक्षा ईश्वर-चेतना दूसरे नम्बर पर आती है और बुद्धिमें आरूढ़-चेतना जो है वह तीसरे नम्बर पर आती है। हाँ तो महात्माकी स्थिति कहाँ है? हमारे वृन्दावन में एक महात्मा थे, वे बहुत बढ़िया छप्पय बोला करते थे, हमको पूरा याद नहीं है
झण्डा गाड़ो जाय के हद-बेहद के पार ।
हद-बेहद के पार दूर जहाँ अनहद बाजे॥ हमारा झण्डा वहाँ गड़ना चाहिए? कहाँ? कि हद्-बेहद्के पार ‘हद' माने सीमा-संसारकी हद होती है और बेहद है असीम ईश्वर और इन दोनोंके परे ‘आत्म-चैतन्य' महात्माका निवास है। तो नारायण, महात्मा भी अधिष्ठान स्वरूप ही है, प्रिय स्वरूप ही है, सुहृद स्वरूप ही है।
अब फिर से प्रश्न पर आ जाते हैं। प्रश्न यह है कि भगवान जो हैं ये भक्त का पक्षपात क्यों करते हैं? और, इसका उत्तर भी यही है कि भगवान् भक्तका पक्षपात करते हैं। क्यों करते हैं-यह बात आगे बतायी जाती है।
एक कथा आती है कि भगवान्ने वृत्तासुरके वधके लिए इन्द्रको अपनी शक्ति दे दी। माने इन्द्रके वज्रमें अपनी शक्ति भर दी और वृत्तासुरको मरवा दिया। दूसरी कथा आती है कि भगवान्ने देवताओंकी रक्षाके लिए दितिके गर्भ में प्रवेश करके उसके गर्भस्थ बालकके उन्चास टुकड़े कर दिये और अन्तमें उनको देवताओंका शत्रु न रहने देकर उनके पक्षमें कर दिया।
इन सब कथाओंको सुननेसे भगवान्के गुणोंके प्रति शङ्का होती है कि भगवान् सम नहीं हैं, विषम हैं, पक्षपाती हैं! इन्द्र के लिए ये विषम पुरुषकी तरह दैत्योंका वध करते हैं? क्या हो जाता है इनको जो किसीके साथ न्याय करते हैं और किसीके साथ अन्याय?
यह तो संसारी लोग पत्नीके लिए, पुत्रके लिए, अपने परिवारके लिए दूसरोंकी पत्नी, पुत्र, परिवारको कष्ट पहुंचाते हैं। भगवान्को तो ऐसा नहीं करना चाहिए। भगवानका तो काम नहीं है यह। नहीं हो तुम भगवान्! जब एक पक्षकी स्थितिके लिए दूसरे पक्षको कष्ट पहुँचाते हो।
तो स्वयंका अर्थ है-निर्निमित्त भूतानां भगवान् स्वयं भूत-प्रेत भेंट चढ़ानेसे खुश होते हैं, नौकर-चाकर इनाम देनेसे खुश होते हैं, साहब-मिनिस्टर रिश्वत मिलनेसे खुश होते हैं और भगवान् कैसे खुश होते हैं? बोले-स्वयं समः स्वयं प्रियः स्वयं सुहृद । देखो, महात्मा एक दृष्टिसे ईश्वरसे बड़ा होता है।
इसका यह मतलब नहीं कि हम ईश्वरसें बड़े हैं, या ईश्वर हैं परन्तु महात्माकी जो आत्मा है और महात्माकी जो बुद्धि है, दोनोंके बीचमें ईश्वरका निवास है। महात्मा पहले ईश्वरको देखता है, फिर बुद्धिको और फिर संसार देखने में आता है।
धियो यो नः प्रचोदयात् । बुद्धिका प्रेरक है परमेश्वर और दृष्टा साक्षी अद्वितीय ब्रह्म है महात्मा । तो, ब्रह्म-चेतनाकी अपेक्षा ईश्वर-चेतना दूसरे नम्बर पर आती है और बुद्धिमें आरूढ़-चेतना जो है वह तीसरे नम्बर पर आती है। हाँ तो महात्माकी स्थिति कहाँ है? हमारे वृन्दावन में एक महात्मा थे, वे बहुत बढ़िया छप्पय बोला करते थे, हमको पूरा याद नहीं है
झण्डा गाड़ो जाय के हद-बेहद के पार ।
हद-बेहद के पार दूर जहाँ अनहद बाजे॥ हमारा झण्डा वहाँ गड़ना चाहिए? कहाँ? कि हद्-बेहद्के पार ‘हद' माने सीमा-संसारकी हद होती है और बेहद है असीम ईश्वर और इन दोनोंके परे ‘आत्म-चैतन्य' महात्माका निवास है। तो नारायण, महात्मा भी अधिष्ठान स्वरूप ही है, प्रिय स्वरूप ही है, सुहृद स्वरूप ही है।
अब फिर से प्रश्न पर आ जाते हैं। प्रश्न यह है कि भगवान जो हैं ये भक्त का पक्षपात क्यों करते हैं? और, इसका उत्तर भी यही है कि भगवान् भक्तका पक्षपात करते हैं। क्यों करते हैं-यह बात आगे बतायी जाती है।
एक कथा आती है कि भगवान्ने वृत्तासुरके वधके लिए इन्द्रको अपनी शक्ति दे दी। माने इन्द्रके वज्रमें अपनी शक्ति भर दी और वृत्तासुरको मरवा दिया। दूसरी कथा आती है कि भगवान्ने देवताओंकी रक्षाके लिए दितिके गर्भ में प्रवेश करके उसके गर्भस्थ बालकके उन्चास टुकड़े कर दिये और अन्तमें उनको देवताओंका शत्रु न रहने देकर उनके पक्षमें कर दिया।
इन सब कथाओंको सुननेसे भगवान्के गुणोंके प्रति शङ्का होती है कि भगवान् सम नहीं हैं, विषम हैं, पक्षपाती हैं! इन्द्र के लिए ये विषम पुरुषकी तरह दैत्योंका वध करते हैं? क्या हो जाता है इनको जो किसीके साथ न्याय करते हैं और किसीके साथ अन्याय?
यह तो संसारी लोग पत्नीके लिए, पुत्रके लिए, अपने परिवारके लिए दूसरोंकी पत्नी, पुत्र, परिवारको कष्ट पहुंचाते हैं। भगवान्को तो ऐसा नहीं करना चाहिए। भगवानका तो काम नहीं है यह। नहीं हो तुम भगवान्! जब एक पक्षकी स्थितिके लिए दूसरे पक्षको कष्ट पहुँचाते हो।
वैषम्य और नैर्घण्य। किसीके प्रति पक्षपात और किसीके प्रति निर्दयता ।
देखो, ये दो दोष ब्रह्ममें तो होते नहीं और महात्मामें कदाचित् छायाकी तरह आ भी जायँ तो फिर स्वप्रवत् मिट जाते हैं! लेकिन, ईश्वरमें तो दोनों दोष रहते हैं! तो बोले कि जब ब्रह्ममें ये दोष नहीं होते, एक महात्मामें नहीं होते, तब ईश्वरमें भी ये नहीं होने चाहिए।
कहो कि भाई, इन्द्रादि देवता भगवान्की बड़ी पूजा करते हैं, बड़ी भेंट चढ़ाते हैं। जो उनकी पूजा-पत्री लेकर भगवान् उनका पक्ष लेते हैं। बोले-नहीं ऐसा नहीं है, ये तो साक्षान्निः श्रेयसात्मनः हैं। ये तो मुक्त-स्वरूप हैं। निःश्रेयस इनका स्वरूप है।
इनको देवताओंसे कुछ लेना नहीं है और दैत्योंसे इनकी कोई हानि नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे, रज्जुमें कल्पित सर्प रज्जुको विषैली नहीं बना सकता और रज्जुमें कल्पित माला रज्जुकी शोभा नहीं बढ़ा सकती। तो ये साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं, निःश्रेयस स्वरूप हैं। इनको देवताओंसे क्या लेना-देना कि उनका पक्षपात लेकर दैत्योंको मारते हैं?
कहो कि भाई, इन्द्रादि देवता भगवान्की बड़ी पूजा करते हैं, बड़ी भेंट चढ़ाते हैं। जो उनकी पूजा-पत्री लेकर भगवान् उनका पक्ष लेते हैं। बोले-नहीं ऐसा नहीं है, ये तो साक्षान्निः श्रेयसात्मनः हैं। ये तो मुक्त-स्वरूप हैं। निःश्रेयस इनका स्वरूप है।
इनको देवताओंसे कुछ लेना नहीं है और दैत्योंसे इनकी कोई हानि नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे, रज्जुमें कल्पित सर्प रज्जुको विषैली नहीं बना सकता और रज्जुमें कल्पित माला रज्जुकी शोभा नहीं बढ़ा सकती। तो ये साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं, निःश्रेयस स्वरूप हैं। इनको देवताओंसे क्या लेना-देना कि उनका पक्षपात लेकर दैत्योंको मारते हैं?