भगवान की प्रेरणादायक कहानी: निष्काम कर्मयोगी बालक
परिचय
एक नगर में एक पुरुष के पुत्र उत्पन्न हुआ जो अपाहिज था। उसके माता-पिता उसे उसी अतुलनीय प्रेम की दृष्टि से देखने लगे और अत्यंत हर्ष के साथ प्यार करने लगे।
बालक का जीवन और प्रश्न
एक दिन जब वह अपाहिज बालक कुछ बड़ा हो गया था, अपने पिता के साथ मकान पर बैठा हुआ था। उसे देखकर गाँव के कुछ लोग वहाँ आकर बैठे। कुछ देर बाद वहाँ यह प्रश्न उठा कि इस बालक का जीवन किस प्रकार व्यतीत होगा?
पिता ने कहा, "अभी तो यह हमारे आश्रय में है, क्योंकि हम ही प्रतिदिन इसका भरण-पोषण करते हैं। हमारे मरने के बाद इसके जीवन का कोई आधार नहीं रहेगा। यदि यह हमारे सामने ही मर जाए तो बहुत हितकर होगा।"
इतने में पिता ने प्यार से पूछा, "बेटा, तुम किसके भाग का खाते हो?" पुत्र ने उत्तर दिया, "अपने भाग्य का, और जो संपूर्ण संसार का आश्रय है, वही मेरा भी आधार है। क्योंकि जो जल मेघों द्वारा बरसाया जाता है, वह प्राणियों के जीवन के लिए अमृत रूप होता है और औषधियों का पोषण करता है।"
बालक का दर्शन
बालक ने आगे कहा, "हे पिता, उस वर्षा के पानी से महान वृद्धि को प्राप्त होकर समस्त औषधियाँ और फल, गोधूम, यव आदि अन्न प्रजा वर्ग के शरीर की उत्पत्ति और पोषण के साधक होते हैं। उनके द्वारा मनुष्यगण नित्य यज्ञ करके देवताओं को संतुष्ट करते हैं। इस प्रकार संपूर्ण यज्ञ, वेद, ब्राह्मण आदि वर्ण, समस्त देव समूह और प्राणीगण वृष्टि के आश्रित हैं।"
"हे पिताजी, अन्न पैदा करने वाली वृष्टि ही इन सबको धारण करती है। उसकी पुष्टि सूर्य से होती है, सूर्य का आधार ध्रुव है, ध्रुव का आधार शिशुमार चक्र है, और शिशुमार के आश्रय श्री नारायण हैं। उनके हृदय में श्री नारायण स्थित हैं, जो समस्त प्राणियों के पालक और आदि भूत सनातन पुरुष हैं। वे ही सबके पालक हैं, और कोई किसी का पालक नहीं।"
पिता की प्रतिक्रिया
पुत्र के वचन सुनकर पिता ने उसे बहुत बुरा-भला कहा और बोले, "यदि तू ऐसा ही जानता है, तो आज से हमारे आश्रय में न रहकर अपनी उदर पूर्ति कर। अब देखते हैं, भावी प्रबल क्या करवाती है।" विधाता ने भाग्य में जो कुछ अंकित किया है, वह अमिट है। अपाहिज बालक भी इसी प्रकार विचार करते हुए भगवान के आश्रित होकर सरकता हुआ चल दिया।
भगवान की कृपा
भगवान, जो दया के सागर हैं, अपने भक्तों को दुखी देखकर दुखी हुए। बालक ने विश्वासपूर्वक भगवान का आश्रय लिया था, इसलिए वह भक्त कहलाया। कहा जाता है कि भगवान विश्वास निवासी हैं। बालक के दृढ़ विश्वास को देखकर भगवान ने कृपा की और उसके हृदय रूपी आकाश में विज्ञान चंद्रमा का प्रकाश किया।
तपस्या और समाधि
ज्ञान चंद्र के उदय होने पर बालक सरकता हुआ वन में गया और समाधि लगाकर बैठ गया। वह निर्भय होकर भव भय हारी त्रिय ताप निकंदन भगवान का पूर्ण ध्यान करने लगा। न तो वह अन्न खाता था, न पानी पीता था।
नारद जी का आगमन
एक दिन भगवान की प्रेरणा से नारद जी वहाँ होकर निकले। बालक को तप में लीन देखकर वे अति प्रसन्न हुए और समीप जाकर बोले, "हे पुत्र, मैं देवर्षि नारद हूँ। तेरी तपस्या से अति हर्षित हूँ। अब तू अपनी मनोकामना पूर्ण कर।" परंतु बालक ने कोई उत्तर नहीं दिया।
नारद जी के बहुत कहने पर बालक ने यही कहा, "जहाँ आपके दर्शन मिले, वही मेरे लिए सर्वस्व है। मुझे घर की आवश्यकता नहीं।" अंत में नारद जी उसे जितेंद्रिय कहकर चले गए और आशीर्वाद दिया, "तेरी तपस्या अटल रहे।"
त्रिदेवों का दर्शन
नारद जी ब्रह्मा जी के दरबार में गए और अपाहिज निष्काम कर्मयोगी बालक का वृत्तांत सुनाया। ब्रह्मा जी यह सुनकर उसके दर्शन के लिए इच्छुक हुए और भगवान शंकर के पास पहुँचे। सारा वृत्तांत सुनाने पर महादेव जी भी दर्शन को तैयार हुए और भगवान विष्णु के पास पहुँचे।
भगवान विष्णु भी उस हाल को सुनकर उनके साथ हो लिए और उसी वन में पहुँचकर बालक के दर्शन करने लगे। ब्रह्मा जी ने कहा, "हे पुत्र, मैं ब्रह्मा हूँ। तुम्हारे उग्र तप से अति प्रसन्न हूँ। अब जो तुम्हारी अभिलाषा हो, वह मेरे द्वारा पूर्ण करो।" परंतु बालक ने उत्तर नहीं दिया। अंत में उसने कहा, "हे पितामह जी, आपके दर्शन ही सर्व कल्याण कारक हैं। मुझे और कोई चेष्टा नहीं।"
भगवान शंकर और विष्णु का आशीर्वाद
ब्रह्मा जी ने बार-बार वर देने को कहा, पर बालक ने मना कर दिया। अंत में ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर आशीर्वाद देकर चले गए। इसके बाद भगवान शंकर ने कहा, "पुत्र, मैं त्रिपुरारी हूँ। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। अब तुम अपनी मनोकामना पूर्ण करो।" बालक ने कहा, "आपके दर्शन ही प्रधान सुख देने वाले हैं।" महादेव जी भी प्रसन्न होकर आशीष देकर चले गए।
पुनः कमल नयन भगवान विष्णु बालक के पास गए और उसे गोद में उठाकर बोले, "पुत्र, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो मनोकामना हो, मुझसे कहो।" बालक ने कहा, "हे स्वामी, जब आप अव्यक्त, अजर, अमर, अविनाशी भगवान पुरुषोत्तम मेरे लोचनों के सामने हैं, तो मैं ऐसे फल के सिवाय और किस फल की चेष्टा करूँ?"
निष्काम भक्ति का महत्व
बालक ने कहा, "सांसारिक संपूर्ण सुख व्यर्थ हैं। केवल आपकी निष्काम कर्म द्वारा भक्ति ही मोक्षकारी है। जो पुरुष आपकी भक्ति और दर्शन रूप हीरामणि को त्याग कर कांच रूप सांसारिक सुखों को ग्रहण करते हैं, वह महामूर्ख और संसारी बंधनों में बंधने वाला अधम जड़ है।"
"हे भगवान, आपकी जिस मूर्ति के लिए ब्रह्मा, महेश और अनेक देव-मुनि निरंतर तप करते हैं, और वेद नेति-नेति कर पुकारते हैं, मैं ऐसे कृपा सागर दीन निवाज आपकी भक्ति को छोड़कर और किस पदार्थ को बड़ा समझकर उसकी चेष्टा करूँ?"
मोक्ष की प्राप्ति
भगवान, जो अंतर्यामी हैं, बालक के वचन सुनकर और उसकी फल की कामना से रहित भक्ति देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उसी वक्त उन्होंने उसे सारूप मोक्ष प्रदान किया, अर्थात अपने रूप में मिला लिया।
निष्काम कर्मयोग का महत्व
विचार करें कि निष्काम कर्मयोग क्या है, जिसके प्रताप से मन और वचन से परे परमात्मा स्वयं दर्शन देने आए। जिस भगवान का सुर, नर, मुनि और किन्नर निरंतर ध्यान करते हैं, तब भी नहीं मिलते, वे निष्काम योगी के दर्शन को पधारे।
उपसंहार
भावार्थ यह है कि संसार में मनुष्य को नित्य भगवान का जाप करना चाहिए। सब कुछ भगवान का समझकर सिद्ध-असिद्ध में समत्व भाव रखना चाहिए। आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर, भगवत् आज्ञा अनुसार केवल भगवान के लिए कर्म करना चाहिए।
श्रद्धा और भक्ति के साथ मन, वाणी और शरीर से कमलनयन भगवान का शरण होकर उनके नाम, गुण और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करना चाहिए। इस प्रकार निष्काम कर्मयोग द्वारा भवसागर को पार करना अत्यंत सुगम है।