यह दो हिंदी कहानियाँ आपका जीवन बदल देंगी prernadayak kahani hindi mein
- नेक कमाई की बरकत
प्राचीन काल में भारतवर्ष में एक धर्मग्य प्रजापालक प्रतापी और उन्नत सील राजा था। अहिंसा प्रिय दया का मानो चंद्रमा ही था और वह अपनी प्रजा को प्राणों के समान प्रिय समझता था चाहे कैसा ही ब्राह्मण उसके दरवाजे पर आता उसे दान देता और आदर सत्कार करता था।
यही कारण था कि भारत वर्ष उस समय उन्नति के शिखर पर था और यह सोने की चिड़िया कह कर पुकारा जाता था। उसी समय में एक वन में एक विद्वान ब्राह्मण रहता था परंतु वह महान गरीब था और वेदानुसार धन उपार्जन करके अपनी जीविका व्यतीत करता था।
यही कारण था कि भारत वर्ष उस समय उन्नति के शिखर पर था और यह सोने की चिड़िया कह कर पुकारा जाता था। उसी समय में एक वन में एक विद्वान ब्राह्मण रहता था परंतु वह महान गरीब था और वेदानुसार धन उपार्जन करके अपनी जीविका व्यतीत करता था।
एक उसके 12 वर्ष की कन्या थी
एक दिन ब्राह्मणी ने कहा कन्या विवाह के योग्य है इस कारण इसका कुछ प्रबंध होना चाहिए। ब्राह्मण बोला की कन्या तो विवाह के योग्य है परंतु उसके विवाह के लिए धन कहां से एकत्रित हो।
तब ब्राह्मणी ने कहा महाराज आपका यश चारों ओर फैल रहा है क्योंकि आप पूर्ण धुरंधर पंडित हैं और भिक्षा मांगना ब्राह्मण का मुख्य धर्म है। इसलिए आप किसी राजा महाराजा से भिक्षा मांगे तो आपसे कोई मन नहीं कर सकता।
ब्राह्मण को यह राय बहुत अच्छी मालूम पड़ी और खाने को भोजन लेकर अपने देश के राजा के पास गया द्वारपाल ने राजा को ब्राह्मण के आने का समाचार सुनाया। तो राजा सिंहासन को छोड़कर दरवाजे पर आया और ब्राह्मण को आदर पूर्वक सभा में ले गया और सिंहासन पर बिठला और कुशल छेम पूंछी।
तब ब्राह्मण ने कहा कि जब आप जैसे धर्मज्ञ शील राजा हैं तो किसकी सामर्थ है जो आपके सामने पडकर प्रजा को कष्ट पहुंचाये। परंतु आप बतलाइए की राज्य में कोई तरह की अशांति के कारण आत्मा को क्लेश तो नहीं है।
तब राजा ने यह कहा कि जिस देश में विद्वान सतोगुणी वेदानुवादी महात्मा निवास करते हैं, वह देश मानो रत्नों की खान तथा सुख ऐश्वर्य का घर है यह वेदों ने कहा है।
बाद कुशल छेम के राजा ने कहा कि हे नाथ आप अपने आने का कारण बताइए ? तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं केवल भिक्षा ही की इच्छा से आया हूं! राजा ने यह सुनकर अपने धन कोषाधिकारी को बुलाकर आज्ञा दी कि इन ब्राह्मण देव को 10 सहस्त्र मुद्रा दो।
ब्राह्मण ने सुनते ही उत्तर दिया कि हे कृपा नाथ यह तो थोड़ा है फिर राजा ने कहा अच्छा 20 सहस्त्र स्वर्ण मुद्रा दो फिर भी ब्राह्मण ने कहा राजन यह भी थोड़ा है।
अब राजा ने धीरे-धीरे ब्राह्मण का दास बनना अंगीकार किया और अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया।
तब भी ब्राह्मण ने यही कहा कि कृपा निधि ये तो बहुत ही थोड़ा है, यह सुनकर राजा ने कहा कि मैं शरीर तक आपको दे चुका हूं अब मेरे पास देने को क्या शेष है ?
तब ब्राह्मणदेव बोले की आप मुझे अपना वह धन दीजिए जो प्रजा के हितार्थ धर्मपूर्वक स्वयं परिश्रम करके कमाया हो राजा ने ब्राह्मण की आज्ञा सिर धारण की और नम्रता पूर्वक कही की कल तक आप ठहरिये
तब ब्राह्मणी ने कहा महाराज आपका यश चारों ओर फैल रहा है क्योंकि आप पूर्ण धुरंधर पंडित हैं और भिक्षा मांगना ब्राह्मण का मुख्य धर्म है। इसलिए आप किसी राजा महाराजा से भिक्षा मांगे तो आपसे कोई मन नहीं कर सकता।
ब्राह्मण को यह राय बहुत अच्छी मालूम पड़ी और खाने को भोजन लेकर अपने देश के राजा के पास गया द्वारपाल ने राजा को ब्राह्मण के आने का समाचार सुनाया। तो राजा सिंहासन को छोड़कर दरवाजे पर आया और ब्राह्मण को आदर पूर्वक सभा में ले गया और सिंहासन पर बिठला और कुशल छेम पूंछी।
तब ब्राह्मण ने कहा कि जब आप जैसे धर्मज्ञ शील राजा हैं तो किसकी सामर्थ है जो आपके सामने पडकर प्रजा को कष्ट पहुंचाये। परंतु आप बतलाइए की राज्य में कोई तरह की अशांति के कारण आत्मा को क्लेश तो नहीं है।
तब राजा ने यह कहा कि जिस देश में विद्वान सतोगुणी वेदानुवादी महात्मा निवास करते हैं, वह देश मानो रत्नों की खान तथा सुख ऐश्वर्य का घर है यह वेदों ने कहा है।
बाद कुशल छेम के राजा ने कहा कि हे नाथ आप अपने आने का कारण बताइए ? तब ब्राह्मण ने कहा कि मैं केवल भिक्षा ही की इच्छा से आया हूं! राजा ने यह सुनकर अपने धन कोषाधिकारी को बुलाकर आज्ञा दी कि इन ब्राह्मण देव को 10 सहस्त्र मुद्रा दो।
ब्राह्मण ने सुनते ही उत्तर दिया कि हे कृपा नाथ यह तो थोड़ा है फिर राजा ने कहा अच्छा 20 सहस्त्र स्वर्ण मुद्रा दो फिर भी ब्राह्मण ने कहा राजन यह भी थोड़ा है।
अब राजा ने धीरे-धीरे ब्राह्मण का दास बनना अंगीकार किया और अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया।
तब भी ब्राह्मण ने यही कहा कि कृपा निधि ये तो बहुत ही थोड़ा है, यह सुनकर राजा ने कहा कि मैं शरीर तक आपको दे चुका हूं अब मेरे पास देने को क्या शेष है ?
तब ब्राह्मणदेव बोले की आप मुझे अपना वह धन दीजिए जो प्रजा के हितार्थ धर्मपूर्वक स्वयं परिश्रम करके कमाया हो राजा ने ब्राह्मण की आज्ञा सिर धारण की और नम्रता पूर्वक कही की कल तक आप ठहरिये
ब्राह्मण ने यह बात स्वीकार कर ली
उसी रात को राजा अपना स्वरूप बदलकर प्रजा के सुख-दुखकी परीक्षा करने के लिए और स्वयं परिश्रम से धन पैदा करने के लिए निकला। तो क्या देखता है कि शहर के सारे मनुष्य सुख की नींद सो रहे हैं परंतु एक लोहार अपनी दुकान खोल स्वयं परिश्रम कर रहा है।
राजा ने उसके पास जाकर कहा कि हे सज्जन यदि आपके पास कुछ अधिक काम हो तो हमें बतला दीजिए यह सुनकर लोहार ने कहा कि मेरे पास काम तो साधारण ही है परंतु तुम इस काम को पूरा कर दो हम तुम्हें चार पैसे देंगे।
राजा ने उस बात को स्वीकार कर लिया लोहार अपने घर पर जाकर सो गया राजा ने उसे काम को प्रातः काल तक पूर्ण कर दिया।
लोहार देखते ही सुबह को बहुत प्रसन्न हुआ और चार पैसे की बजाय पांच पैसे देने लगा परंतु राजा ने कहा कि मुझे से चार पैसे नियत है इसलिए मैं चकार ही पैसे लूंगा।
लोहार से चार पैसे लेकर राजा चल दिया और नित्य प्रति के अनुसार दरबार जुड़ा कुछ समय के बाद वह ब्राह्मण भी वहां आ गया। ब्राह्मण को राजा ने चार पैसे दिया और ब्राह्मण ने प्रसन्नता पूर्वक ले लिए और तुरंत ही घर का मार्ग लिया।
ब्राह्मणी ने ब्राह्मण को आता देखकर बहुत हर्ष मनाया और ब्राह्मण से पूछा की भिक्षा में क्या धन ले आये हो ? तब ब्राह्मण ने कहा चार पैसे! तब ब्राह्मणी ने चार पैसे छुडाकर आंगन में फेंक दिया और ब्राह्मणी सो गई।
प्रातः काल जब यह दोनों उठे तो क्या देखते हैं उन चार पैसों के स्थान पर चार वृक्ष खड़े हुए हैं और उनकी पत्तियां स्वर्ण की और फल फूल मानो जगमगाते हुए हीरा मोती हैं।
ब्राह्मण ब्राह्मणी यह देखकर बहुत खुश हुए और इन वृक्षों से धन लेकर अपनी कन्या का विवाह कर दिया और नित्य प्रति अत्यन्त पुण्य दान किया अंत में वह ब्राह्मण एक धनाड्य पुरुष हो गया।
उसके धनवान होने का समाचार उसी राजा के पास गया राजा ने सुनकर आश्चर्य किया और परीक्षा के निमित्त ब्राह्मण के घर आया तब ब्राह्मण से प्रश्न किया कि आपके पास यह धन कहां से आया ?
तब ब्राह्मण ने कहा कि है राजन तुम्हारे नेक की कमाई के चार पैसे मुझे फलीभूत हुए हैं और चारों वृक्षों को उखाड़ कर राजा को जड़ में चार पैसे ही दिखला दिए।
राजा को विश्वास हो गया कि अवश्य ही नेक कमाई की बरकत है भावार्थ- इससे यह सिद्ध होता है कि परिश्रम द्वारा जो धन उपार्जन होता है वह निरंतर उन्नतिकारी होता है।
मनुष्य का शरीर पंचभूतों से मिलकर बनता है अंत में वह मिट्टी में मिल जाता है मनुष्य का गुण ही बड़ा है।
इसका मांस भी काम में नहीं आ सकता, खाल से बाजे नहीं मढे जाते हैं और हड्डियों से आभूषण भी नहीं बनते हैं अर्थात मनुष्य का मरने के पश्चात कोई भी अंग काम में नहीं आ सकता।
यहां तक की इसको श्वान भी नहीं खा सकते अस्तु निरंतर श्री पुरुषोत्तम भगवान का स्मरण करें तथा परोपकार ही करें भवसागर से पार होने का यही एक सुगम उपाय है।
अपने शरीर पर मनुष्य को भूल कर भी गर्व न करना चाहिए क्योंकि यह स्वार्थी है क्योंकि भूखा रहने पर तो मान बिगाडना है और मर जाने पर दृष्टि को बिगाड़ता है इस पर एक दृष्टांत है-
एक बहेलिया एक दिन तीर कमान हाथ में लिए हुए वन में एक नदी के पास पहुंचा जिसमें एक प्यासी हिरनी अपनी प्यास बुझा रही थी बहेलिया ने हिरनी को देखकर उसके बदन में तीर मार दिया।
हिरनी तीर के लगते ही भाग गई और आगे बहुत दूर निकलकर झाड़ी में बैठ गई। इधर बहेलिया ने विचार किया कि यह हिरणी कहीं ना कहीं पर घायल होकर अवश्य ही गिर पड़ेगी इस कारण आगे चलकर देखना चाहिए।
जिस समय हिरनी भागी थी उस समय उसके शरीर से रुधिर टपकता जाता था वह बहेलिया उसी रुधिर की खोज पर चलने लगा चलते-चलते वह रुधिर ठीक झाड़ी ही के ही पास बंद मालूम पड़ा।
यानी झाड़ी के आगे रुधिर नहीं था बहेलिए ने कहा कि रुधिर से इस झाड़ी तक हिरनी का पता चलता है आगे रुधिर का निशान नहीं है इससे सिद्ध होता है की हिरनी अवश्य ही इस झाड़ी में मौजूद है।
आगे बढ़कर देखा तो हिरनी झाड़ी में बैठी हुई है बहेलिया ने तुरंत ही उसे मारने को तीर संभाला त्यों ही हिरनी बोली की थोड़ी देर ठहरो पीछे आपकी जो इच्छा हो सो करना।
राजा ने उसके पास जाकर कहा कि हे सज्जन यदि आपके पास कुछ अधिक काम हो तो हमें बतला दीजिए यह सुनकर लोहार ने कहा कि मेरे पास काम तो साधारण ही है परंतु तुम इस काम को पूरा कर दो हम तुम्हें चार पैसे देंगे।
राजा ने उस बात को स्वीकार कर लिया लोहार अपने घर पर जाकर सो गया राजा ने उसे काम को प्रातः काल तक पूर्ण कर दिया।
लोहार देखते ही सुबह को बहुत प्रसन्न हुआ और चार पैसे की बजाय पांच पैसे देने लगा परंतु राजा ने कहा कि मुझे से चार पैसे नियत है इसलिए मैं चकार ही पैसे लूंगा।
लोहार से चार पैसे लेकर राजा चल दिया और नित्य प्रति के अनुसार दरबार जुड़ा कुछ समय के बाद वह ब्राह्मण भी वहां आ गया। ब्राह्मण को राजा ने चार पैसे दिया और ब्राह्मण ने प्रसन्नता पूर्वक ले लिए और तुरंत ही घर का मार्ग लिया।
ब्राह्मणी ने ब्राह्मण को आता देखकर बहुत हर्ष मनाया और ब्राह्मण से पूछा की भिक्षा में क्या धन ले आये हो ? तब ब्राह्मण ने कहा चार पैसे! तब ब्राह्मणी ने चार पैसे छुडाकर आंगन में फेंक दिया और ब्राह्मणी सो गई।
प्रातः काल जब यह दोनों उठे तो क्या देखते हैं उन चार पैसों के स्थान पर चार वृक्ष खड़े हुए हैं और उनकी पत्तियां स्वर्ण की और फल फूल मानो जगमगाते हुए हीरा मोती हैं।
ब्राह्मण ब्राह्मणी यह देखकर बहुत खुश हुए और इन वृक्षों से धन लेकर अपनी कन्या का विवाह कर दिया और नित्य प्रति अत्यन्त पुण्य दान किया अंत में वह ब्राह्मण एक धनाड्य पुरुष हो गया।
उसके धनवान होने का समाचार उसी राजा के पास गया राजा ने सुनकर आश्चर्य किया और परीक्षा के निमित्त ब्राह्मण के घर आया तब ब्राह्मण से प्रश्न किया कि आपके पास यह धन कहां से आया ?
तब ब्राह्मण ने कहा कि है राजन तुम्हारे नेक की कमाई के चार पैसे मुझे फलीभूत हुए हैं और चारों वृक्षों को उखाड़ कर राजा को जड़ में चार पैसे ही दिखला दिए।
राजा को विश्वास हो गया कि अवश्य ही नेक कमाई की बरकत है भावार्थ- इससे यह सिद्ध होता है कि परिश्रम द्वारा जो धन उपार्जन होता है वह निरंतर उन्नतिकारी होता है।
यह दो हिंदी कहानियाँ आपका जीवन बदल देंगी prernadayak kahani hindi mein
- शरीर जीव का साथी है या स्वार्थी है
मनुष्य का शरीर पंचभूतों से मिलकर बनता है अंत में वह मिट्टी में मिल जाता है मनुष्य का गुण ही बड़ा है। इसका मांस भी काम में नहीं आ सकता, खाल से बाजे नहीं मढे जाते हैं और हड्डियों से आभूषण भी नहीं बनते हैं अर्थात मनुष्य का मरने के पश्चात कोई भी अंग काम में नहीं आ सकता।
यहां तक की इसको श्वान भी नहीं खा सकते अस्तु निरंतर श्री पुरुषोत्तम भगवान का स्मरण करें तथा परोपकार ही करें भवसागर से पार होने का यही एक सुगम उपाय है।
अपने शरीर पर मनुष्य को भूल कर भी गर्व न करना चाहिए क्योंकि यह स्वार्थी है क्योंकि भूखा रहने पर तो मान बिगाडना है और मर जाने पर दृष्टि को बिगाड़ता है इस पर एक दृष्टांत है-
एक बहेलिया एक दिन तीर कमान हाथ में लिए हुए वन में एक नदी के पास पहुंचा जिसमें एक प्यासी हिरनी अपनी प्यास बुझा रही थी बहेलिया ने हिरनी को देखकर उसके बदन में तीर मार दिया।
हिरनी तीर के लगते ही भाग गई और आगे बहुत दूर निकलकर झाड़ी में बैठ गई। इधर बहेलिया ने विचार किया कि यह हिरणी कहीं ना कहीं पर घायल होकर अवश्य ही गिर पड़ेगी इस कारण आगे चलकर देखना चाहिए।
जिस समय हिरनी भागी थी उस समय उसके शरीर से रुधिर टपकता जाता था वह बहेलिया उसी रुधिर की खोज पर चलने लगा चलते-चलते वह रुधिर ठीक झाड़ी ही के ही पास बंद मालूम पड़ा।
यानी झाड़ी के आगे रुधिर नहीं था बहेलिए ने कहा कि रुधिर से इस झाड़ी तक हिरनी का पता चलता है आगे रुधिर का निशान नहीं है इससे सिद्ध होता है की हिरनी अवश्य ही इस झाड़ी में मौजूद है।
आगे बढ़कर देखा तो हिरनी झाड़ी में बैठी हुई है बहेलिया ने तुरंत ही उसे मारने को तीर संभाला त्यों ही हिरनी बोली की थोड़ी देर ठहरो पीछे आपकी जो इच्छा हो सो करना।
परंतु मेरी एक बात का उत्तर दो
बहेलिए ने यह सुनकर कहा कि अच्छा पूछो? तब हिरनी बोली कि तुम जो जीव हिंसा करते हो इस पाप में तुम्हारे घर वाले भी शामिल है या नहीं ?
बहेलिया ने कहा कि जब मैं नित उनकी उदर पूर्ति करता हूं तो वह मेरे साथ ही क्यों नहीं होंगे ? तब हिरणी ने कहा कि यह बात तुम्हारी असत्य है।
संसार में कोई किसी का नहीं है वेद भी यही कहता है कि अहिंसा परमो धर्म तब बहेलिया ने कहा कि तुम मुझे प्रमाण सहित समझाओ कि संसार में कोई किसी का नहीं है।
बहेलिया ने कहा कि जब मैं नित उनकी उदर पूर्ति करता हूं तो वह मेरे साथ ही क्यों नहीं होंगे ? तब हिरणी ने कहा कि यह बात तुम्हारी असत्य है।
संसार में कोई किसी का नहीं है वेद भी यही कहता है कि अहिंसा परमो धर्म तब बहेलिया ने कहा कि तुम मुझे प्रमाण सहित समझाओ कि संसार में कोई किसी का नहीं है।
उस समय हिरणी ने उसे प्रमाण देकर समझाया
कि जब मेरे शरीर में चोट पहुंच जाती तो मैं चाट कर या भूखी प्यासी रहकर अपनी चोट में आराम पहुंचाती। और भूख लगने पर 10-10 कोश तक जाकर उदरपूर्ती करती और खून में पानी की कमी होने के कारण जब प्यास लगती है तो मैं दुःख सहकर 20-20 मील पर जाकर नदियों में प्यास बुझाती थी।
खून में पानी की कमी से जब मैं नदी में पानी पी रही थी तो तुमने तीर मार दिया तो मैं भी इस शरीर की रक्षा के लिए यहां आई। परंतु इस शरीर के स्वार्थी रुधिर ने ही तुमको मेरा पता बतला दिया और तुम्हें यहां तक ले आया।
अब बतलावो जब शरीर भी अपना साथी नहीं है जिसके लिए जीव दुख सहकर परिश्रम करता है तो घर वाले किस तरह साथी होंगे? उसी दिन से बहेलिया बैरागी हो गया। भावार्थ- इसका यह है की संपूर्ण संसार स्वार्थी है कोई किसी का नहीं है निस्वार्थ प्रेमी नहीं है।
खून में पानी की कमी से जब मैं नदी में पानी पी रही थी तो तुमने तीर मार दिया तो मैं भी इस शरीर की रक्षा के लिए यहां आई। परंतु इस शरीर के स्वार्थी रुधिर ने ही तुमको मेरा पता बतला दिया और तुम्हें यहां तक ले आया।
अब बतलावो जब शरीर भी अपना साथी नहीं है जिसके लिए जीव दुख सहकर परिश्रम करता है तो घर वाले किस तरह साथी होंगे? उसी दिन से बहेलिया बैरागी हो गया। भावार्थ- इसका यह है की संपूर्ण संसार स्वार्थी है कोई किसी का नहीं है निस्वार्थ प्रेमी नहीं है।