श्रीमद् भागवत कथा सार shrimad bhagwat katha saar
श्रीमद् भागवत कथा सार- जब तक व्यक्ति का अंतकरण शुद्ध नहीं होता भाव भी शुद्ध नहीं होता है क्योंकि अहंकार इत्यादि विकार सक्रिय नहीं होना चाहते यह समाप्त नहीं होना चाहते यह तो अधिकार की प्रबल शक्ति से स्थापित रहना चाहते है इन दुर्गति वाले विकारों से सुरक्षा तो केवल परमात्मा के सानिध्य तथा इन दुष्ट विकारों के त्याग से ही संभव हो सकता है।
जब भगवान की कथा का श्रवण होता है तो सर्वप्रथम चित्त शुद्धि प्रारंभ होती है श्रवण मनन चिंतन कीर्तन से जन्म जन्मांतरों के जो एकत्रित संचित पाप है उनका निष्प्रभावी हो नष्ट होना ही निश्चित हो जाता है।
भगवान आध्यात्मिक बौद्धिक इत्यादि विकास करते ही है
क्योंकि कथा आनंदित करने के साथ लाभान्वित भी करती है, कामनाओं की पूर्ति भी करती है तथा कामनाओं का सर्वथा नाश भी करती है अर्थात् निष्काम भक्ति भी प्रदान करती है जिसमें कामनाओं का बीज उत्पन्न नहीं अपितु नष्ट हो जाता है।
जैसे भगवान ने प्रसन्न होकर अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद जी से कहा पुत्र वरदान मांगो तो भक्त प्रह्लाद जी ने कहां प्रभु मेरे हृदय में कभी कामनाओं का बीज अंकुरित न हो तो हम सबको भी सदैव भगवान से वही मांगना चाहिए जिसमें केवल भगवान की प्राप्ति हो संसार के किसी भी अमूल्य वरदान की नहीं।
क्योंकि संसार तो उस परमपिता भगवान ने ही बनाया है जब संसार इतना सुंदर है प्रकृति इतनी सुंदर है तो इन्हें बनाने वाले तो अत्यधिक सुंदर है उन्हें देखो, उन्हें निहारो उन्हें जानो, उन्हें मानो, उनके ही हो जाओ।
संसार के अमूल्य वरदान को बनाने वाले देने वाले है क्यों न उन प्रभु को ही उनके प्रेम को ही प्राप्त करने का भाव हृदय में जाग्रत हो और केवल उन भगवान को भगवान से ही मांग लिया जाए इससे बढ़कर तो संसार का कोई सुख संपत्ति हो ही नहीं सकती।
कोई आनंद नहीं क्योंकि जिनकी कथा जिनका मनन चिंतन भजन इतना आनंद से भरा है तो विचार कीजिए वो परमात्मा कितना करुणा के सागर आनंद के कृपा वत्सल भगवान है जो शब्दो से परे है।
एवं सदैव भगवान के भक्तो को भी भगवान के उपदेश वचनों के अनुसार ही उत्तम कर्म करना चाहिए।
अपने आपको तथा मन को परमात्म मर्यादा में रखना तथा मर्यादा का पालन करना आना ही चाहिए।
नियंत्रण शक्ति, विवेक शक्ति, धैर्य शक्ति, इतनी प्रबल हो कि कोई कर्म परमात्मा के श्री गुरुदेव के तथा शास्त्रों पुराणों के विरुद्ध कार्य कर्म न हो।
उदाहरण जैसे: श्री कृष्ण भगवान तथा अर्जुन के मध्य का संवाद जो गीता ज्ञान के रुप में हमें प्राप्त हुआ है श्री भागवत जी में महाभारत का वह ज्ञान जो संसार के प्रत्येक योद्धा अर्जुन के लिए ही है।
जो धर्म के साथ है वह अर्जुन ही हैं और भगवान जब भी धर्म के साथ उपस्थित रहें अधर्म कितने भी सगे संबंधी क्यों न हो उनका नाश होना ही निश्चित कल्याण है। तथा जहां भगवान श्री कृष्ण है वही धर्म विजय है।
जैसे भगवान ने प्रसन्न होकर अपने प्रिय भक्त प्रह्लाद जी से कहा पुत्र वरदान मांगो तो भक्त प्रह्लाद जी ने कहां प्रभु मेरे हृदय में कभी कामनाओं का बीज अंकुरित न हो तो हम सबको भी सदैव भगवान से वही मांगना चाहिए जिसमें केवल भगवान की प्राप्ति हो संसार के किसी भी अमूल्य वरदान की नहीं।
क्योंकि संसार तो उस परमपिता भगवान ने ही बनाया है जब संसार इतना सुंदर है प्रकृति इतनी सुंदर है तो इन्हें बनाने वाले तो अत्यधिक सुंदर है उन्हें देखो, उन्हें निहारो उन्हें जानो, उन्हें मानो, उनके ही हो जाओ।
संसार के अमूल्य वरदान को बनाने वाले देने वाले है क्यों न उन प्रभु को ही उनके प्रेम को ही प्राप्त करने का भाव हृदय में जाग्रत हो और केवल उन भगवान को भगवान से ही मांग लिया जाए इससे बढ़कर तो संसार का कोई सुख संपत्ति हो ही नहीं सकती।
कोई आनंद नहीं क्योंकि जिनकी कथा जिनका मनन चिंतन भजन इतना आनंद से भरा है तो विचार कीजिए वो परमात्मा कितना करुणा के सागर आनंद के कृपा वत्सल भगवान है जो शब्दो से परे है।
एवं सदैव भगवान के भक्तो को भी भगवान के उपदेश वचनों के अनुसार ही उत्तम कर्म करना चाहिए।
अपने आपको तथा मन को परमात्म मर्यादा में रखना तथा मर्यादा का पालन करना आना ही चाहिए।
नियंत्रण शक्ति, विवेक शक्ति, धैर्य शक्ति, इतनी प्रबल हो कि कोई कर्म परमात्मा के श्री गुरुदेव के तथा शास्त्रों पुराणों के विरुद्ध कार्य कर्म न हो।
उदाहरण जैसे: श्री कृष्ण भगवान तथा अर्जुन के मध्य का संवाद जो गीता ज्ञान के रुप में हमें प्राप्त हुआ है श्री भागवत जी में महाभारत का वह ज्ञान जो संसार के प्रत्येक योद्धा अर्जुन के लिए ही है।
जो धर्म के साथ है वह अर्जुन ही हैं और भगवान जब भी धर्म के साथ उपस्थित रहें अधर्म कितने भी सगे संबंधी क्यों न हो उनका नाश होना ही निश्चित कल्याण है। तथा जहां भगवान श्री कृष्ण है वही धर्म विजय है।
जहां सत्य धर्म है श्री कृष्ण भी वहीं है और अर्जुन भी वहीं है
और जहाँ अधर्म है वहां वह सभी है दुर्योधन, शकुनि, दुशासन इत्यादि जो महाभारत के समय अधर्म के साथी थे इसलिए श्री कृष्ण भगवान के उन वचनों को आज भी जीवन में देखना,जानना, पहचानना, समझना उनके उपदेश अनुसार आचरण व्यवहार करना ही जीवन के महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त करने के समान ही है।
क्योंकि महाभारत तो आज भी इस कलयुग में है प्रत्येक स्थान घर परिवार, समाज, राजनीति तथा प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक मन में विद्यमान है, प्रत्येक व्यक्ति इस महाभारत के छल में घिरा हुआ युद्ध करता हुआ सा ही प्रतीत होता है।
क्योंकि काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार इत्यादि अनेक विकार ही सबसे बड़े प्रबल शत्रु है जो हमारे अपने मन मस्तिष्क घर परिवार समाज में अत्यधिक देखने को मिलते है, यह संग रहकर भी हितेषी संबधी नहीं हो सकते क्योंकि यह कब घात करदे इनका कोई भरोसा नहीं।
इसलिए सदैव स्वार्थी संसार के लिए भगवान को कदापि न बिसराओं भगवान को अपना सारथी बनाओ क्योंकि भगवान ही बल से छल कपट के समस्त दाव पेच से बचा जा सकते है, अन्य कोई नहीं।
वही भगवान इस जीवन के महाभारत युद्ध में भी निश्चित ही विजय प्राप्त कराएंगे क्योंकि जहां पर-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
अर्थात् : जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण हैं और जहां गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन है वहीं पर श्री विजय विभूति की अचल नीति है।
भगवान श्री कृष्ण के प्रत्येक वचन शिक्षा ज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति संसार के लिए जीवन का शाश्वत सत्य सार है।
जो बहुत ही सरल शब्दों में हम अज्ञानी जीवों के उद्धार के लिए वरदान स्वरूप प्राप्त हुआ है। भगवान का प्रत्येक अवतार धर्म की स्थापना अधर्म के नाश तथा संसार के कल्याण के लिए ही होता है।
कभी विचार कीजियेगा क्या? आवश्यकता थी भगवान आकर इतना कष्ट सह इतने कष्टों संघर्ष में भी जीवन व्यतीत कर इतना सुंदर उपदेश हम सबके लिए छोड़ कर गए क्यों?
आखिर क्यों?
सृष्टि की रचना करने वाले पालन करने वाले त्रिलोकी के स्वामी चराचर जगत के रचयिता जो नेत्र भृकुटी मात्र से पलक झपकते ही सृजन पालन संहार करते है वह दृष्टि मात्र से सब कर देते जो चाहते।
वही भगवान इस जीवन के महाभारत युद्ध में भी निश्चित ही विजय प्राप्त कराएंगे क्योंकि जहां पर-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
अर्थात् : जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण हैं और जहां गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन है वहीं पर श्री विजय विभूति की अचल नीति है।भगवान श्री कृष्ण के प्रत्येक वचन शिक्षा ज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति संसार के लिए जीवन का शाश्वत सत्य सार है।
जो बहुत ही सरल शब्दों में हम अज्ञानी जीवों के उद्धार के लिए वरदान स्वरूप प्राप्त हुआ है। भगवान का प्रत्येक अवतार धर्म की स्थापना अधर्म के नाश तथा संसार के कल्याण के लिए ही होता है।
कभी विचार कीजियेगा क्या? आवश्यकता थी भगवान आकर इतना कष्ट सह इतने कष्टों संघर्ष में भी जीवन व्यतीत कर इतना सुंदर उपदेश हम सबके लिए छोड़ कर गए क्यों?
आखिर क्यों?
सृष्टि की रचना करने वाले पालन करने वाले त्रिलोकी के स्वामी चराचर जगत के रचयिता जो नेत्र भृकुटी मात्र से पलक झपकते ही सृजन पालन संहार करते है वह दृष्टि मात्र से सब कर देते जो चाहते।
किंतु नहीं उनका आना हम सबके लिए प्राणी मात्र के लिए यह संदेश है कि मानव जीवन में यह कष्ट दुख पीड़ा यातनाएं सह जीवन को जीना संघर्ष करना जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है।
इन सबके होते हुए भी प्रत्येक परिस्थिति में समान रहना, सुख दुख, लाभ हानि, विजय पराजय में समान भाव रखते हुए धर्म युक्त कर्म कर्तव्य का निर्वाह करना, जीवन कैसे जिया जाना चाहिए यह बताया भगवान ने हमें, कर्मयुक्त धर्मयुक्त का प्रभु का आश्रय ले साथ जीवन को संवारना कैसे है यह बताया है भगवान ने हमें।
कितने कृपालु है भगवान जो इतना सब सहे कितना प्रेम है उनके हृदय में हमारे लिए, तो क्या हमारे हृदय में उन प्रभु के लिए प्रेम है क्या हम उनके आदर्श का पालन करते है?
कितने कृपालु है भगवान जो इतना सब सहे कितना प्रेम है उनके हृदय में हमारे लिए, तो क्या हमारे हृदय में उन प्रभु के लिए प्रेम है क्या हम उनके आदर्श का पालन करते है?