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रविवार, 18 अगस्त 2024

नारद मोह की कथा narad moh ki katha

 नारद मोह की कथा narad moh ki katha

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नारद जी सर्वप्रथम शिव-लोक शिवजी के पास कैलास पर्वत पर गए, उनसे मिले और उनको अपने द्वारा किया गया काम-विजय साधना के बारे मैं बताया, नारद जी स्वम् शिवजी की माया से मोहित हो चुके थे। 

तब शिवजी ने कहा, आहो नारद यह तो बहुत अच्छी बात है लेकिन एक बात का विशेष ध्यान दो, व्यक्ति द्वारा कि गई साधना हमेशा गुप्त रखनी चाइये यह सबको बताने वाली बात नही है और विशेष करके विष्णु जी के आगे तो बिल्कुल भी मत कह देना, अब नारद जी सोचने लगे कि मुझे तो लगा मुझे कोई पुरुस्कार मिलेगा। 

लेकिन यहाँ तो उल्टा ही हो गया, और नारद जी वहाँ से निकल लिए और ब्रह्मा-लोक ब्रह्मा जी के पास गए और उनको भी सारा हाल सुना दिया, ब्रह्मा जी ने शिवजी का स्मरण किया और तभी नारद जी को रोका, पुत्र तुम्हे शिवजी ने भी सतर्क किया था। 

लेकिन फिर भी तुम यह सब मुझे बता रहे हो, अब ध्यान रहे यह बात विष्णु जी के आगे बिलकुल भी मत कह देना, नारद जी फिर से मुह लटकाए वहाँ से चल दिए। 

अब नारद जी ने बहुत सोचा कि विष्णु जी को क्यों नहीं बतानी चाइये लेकिन उनकी समझ मैं नहीं आया, तब सोचा चल ठीक है, प्रभु के दर्शन तो कर ही लेता हु काफी समय हो गया है प्रभु से मिले, और नारद जी पहुँच गए बैकुंठ-धाम, वहाँ पहुँच कर नारद जी को आता देख विष्णु जी खड़े हो गए। 

उनका स्वागत किया अपने आसन पर बिठाया 

और पूछा क्या हाल चाल, इतने समय से कहाँ थे, बड़े दिनों बाद तुम्हारा यहाँ आना हुआ है, इतनी बाते सुनकर नारद जी से रहा नहीं गया और उन्होंने सारी बात कह सुनाई कि किस प्रकार उन्होंने काम देवता पर विजय प्राप्त करके साधना पूर्ण कि। 

तब विष्णु जी ने उनकी बड़ाई करते हुए सम्मानित किया, तब नारद जी ने हस्ते हुए कहाँ, प्रभु आपके रहते काम देव भी मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं यह सब तो आपकी कृपा का ही फल हैं और वहाँ से चल दिये।

अब जब नारद जी ऐसे ही भ्रमण करते हुए जा रहे थे, तब विष्णु जी ने माया द्वारा एक बहुत सुंदर नगर बनाया जिसमे सारी सुख सूविधाय से परीपुण् था और नागर काफी सजा हुआ था, वहाँ के राजा ने अपनी पुत्री के विवाह का स्वयम्बर रखा हुआ था और आस-पास दूर देश के सभी राज कुमारों को बुला रखा था। 

नारद जी जब उस नगर मैं गए वहाँ के राजा ने नारद जी का आदर सम्मान करते हुए उन्हे अपने आसान पर बिठाया और उनकी आरती करी और अपनी पुत्री का हाथ दिखाने के लिए पुत्री को बुलाया। 

लेकिन जब नारद जी ने राजा कि पुत्री को देखा तब वह उन पर मोहित हों गए 

और उनसे खुद के विवाह के बारे मैं सोचने लगे, और राज कुमारी का हाथ देखते हुए बोले कि, राजन आपकी पुत्री समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, परम सौभाग्यशाली, लक्ष्मी जी की तरह गुणों से पूर्ण इनका पति वैभव शाली, वीर, कामविजयी तथा सभी देवताओं मै श्रेष्ठ होगा। 

और ऐसा सब कह कर वहाँ से तो चले गए लेकिन काम से वशिभूत होने के कारण बार बार ये ही सोच रहे थे की किस प्रकार मेरा विवाह उस कन्या के साथ हो पायेगा।

तब उनके मन मै विचार आया की एक स्त्री को वह वर पसंद आते है, जो धन वैभव से परिपूर्ण तो हो ही साथ ही दिखने मै रूप रंग सुंदर भी होना चाइये, क्यों न मै विष्णु जी से विनती करू कि वह मुझे अपना रंग रूप प्रदान करे जिससे यह सुंदरी मुझे प्राप्त हो सके। 

ऐसी मन मै इक्छा लिए शीघ्र ही वापिस विष्णु लोक पहुँच गए, प्रभु को प्रणाम किया, अब प्रभु तो है ही लीला विहारी, पूछा नारद जी से, कहों नारद क्या हुआ, नारद जी बोले प्रभु मै आपसे कुछ मांगने आया हुँ, अगर आप मेरी भक्ति से प्रसन्न है तो मुझे वर दीजिये। 

प्रभु बोले, मै तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुँ मांगो वर, नारद जी बोले मुझे आपका रंग-रूप चाइये, प्रभु बोले, क्यों ?, मेरा रूप किसलिए चाइये...

नारद जी ने सारी बात बताई और कहा मुझे उस सुंदरी से विवाह करना है, अब प्रभु मन ही मन हसने लगे कि अभी थोड़ी देर पहले आये थे अपने गुण गान करने कि मैने काम पर विजय पा ली, कहा गई इनकी कामविजयी.... प्रभु ने अपनी लीला जारी रखी और कहा, नारद. तुम अपने कार्य पर जाओ और जो तुम्हारे लिए सबसे बेहतर होगा। 

वो मै करूँगा, अब विष्णु जी ने अपना रंग-रूप, आभूषण से सुसज्जित कर दिया लेकिन मुख वानर का सा दिया, अब नारद जी ने सारा शरीर देख कर प्रसन्न हो गए और स्व्यम्बर मै चले गए, वहाँ प्रभु ने अपने दो गणों को भी साथ मै भेजा, अब नारद जी का वानर का सा मुख है यह बात सिर्फ उन दो गणों को और राज कुमारी को दिख रहा था बाकी सबको असली मुख ही दिख रहा था। 

जब राज कुमारी वहाँ आई तो एक एक करके सभी राज कुमारों के आगे से निकली

जब नारद जी के पास आने वाली थी तब दोनों गण उपहास कर रहे थे लेकिन नारद जी ने नजर अंदाज किया और इंतेजार करने लगे कि कब राजकुमारी मुझे देखेगी और मेरे गले मैं वरमाला डालेगी। 

क्युकी उन्हे पुरा भरोसा सा, लेकिन जब राजकुमारी पहुची तो नारद जी को देख कर उन्हे क्रोध भी आया और आगे चले गई, नारद जी हैरान कि इसने तो विष्णु रूप को भी रद्द कर दिया तो यह कैसा वर चाहती है, अब उस कक्ष मैं राजकुमारी को कोई भी वर पसंद नही आया। 

तभी विष्णु जी वहाँ पहुँचे, वहाँ तेज प्रकाश हुआ और राजकुमारी विष्णु जी को देख कर बड़ी प्रसन्न हुई क्युकी उन्हे उनका वर मिल गया और दोनों ने एक दूसरे को वर माला पेहनाई, और विष्णु जी कन्या को लेकर चले गए।

अब यह सब देख नारद जी चिंता मैं डूब गए, अब जो व्यक्ति किसी को दिल से चाहे उसे पाने की इक्छा रखे और जिसकी इक्छा पूर्ण नही होती वह परेशान हो जाता है और अपने क्रोध पर काबु नही कर पाता है वही हाल नारद जी का भी हुआ। 

उधर वह दोनों गण नारद जी को लेकर उल्टा सीधा बोल कर उपहास करना शुरू किया, वो गण बोले, वानर जैसा मुख और आये स्वम्बर् मैं शादी करने और हसने लगे। 

तभी नारद जी ने अपना मुख दर्पण मैं देखा, उनके क्रोध की सीमा नही रही और उन दोनों को श्राप देते हुए बोले की तुमने एक ब्रह्माण का उपहास किया है तुम्हे असुर योनी प्राप्त होगी, यह सुन दोनों गण वहाँ से नारद जी को हाथ जोड़ कर वहाँ से चुप चाप चले गए। 

अब नारद जी फिर से विष्णु लोक गए, क्रोध से उनकी आँखे लाल हुई पड़ी थी, विष्णु जी को देखते ही बोले, आप बड़े ही लीला विहारी हो यह सबको पता है लेकिन तुम्हारे सामने कभी किसी श्रेष्ठ व्यक्ति का सामना करने को नही मिला है। 

ये तो शिवजी का तुम्हे पक्ष मिला हुआ है इसलिए अपनी ज्यादा मनमानी करते हो, उस दिन हलाहल मैं जब विष निकला, अगर शिवजी उसे ग्रहण नही करते तब तुम्हारी सारी चलाकि निकल जाती, लेकिन आज तुम्हारे सामने एक श्रेष्ठ ब्राह्मण आया है। 

अब तुम मुझसे शाप ग्रहण करो, जिस प्रकार तुमने मुझे स्त्री के वियोग की पीड़ा दी है उसी प्रकार तुम्हे भी यह पीड़ा सहन करने को मिले, यह बोलते ही शिवजी ने अपनी माया नारद जी के उपर से खिच ली। 

अब जब नारद दी को स्मरण हो आया सब, वह प्रभु के चरणो मैं गिर गए और बोले प्रभु क्षमा कीजिए, मुझे नही पता यह सब क्यों और कैसे हुआ, मैं तो सदेव आपका प्रिय भक्त हुँ, प्रभु आप यह श्राप हटाने मैं शक्षम है। 

प्रभु मुझे बताइये, मेरे प्राणो के त्यागने से अगर यह श्राप हट जायेगा तो अपने प्राणो को त्यागने के लिए भी तैयार हुँ, प्रभु मुझे माफ़ कीजिये और प्रभु के चरणो मैं गिर गए। 

प्रभु ने प्रेम से उठाया और समझाया, तुमने शिवजी कि आज्ञा का उलंघन किया तभी तुम्हें यह पीड़ा सहन करने को मिली है और उपर से तुमने कहा कि तुम कामविजयी हो फिर तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही तो ये लीला रची गई और उसमे तुम रह गए हो। 

जो तुमने श्राप दिया है मैं उसे स्वीकार करता हु, और तुम मेरे प्रिये हो इसलिए तुम्हे समझा रहा हु, तुम अपने पिता ब्रह्मा जी के पास जाओ और उनसे शिव तत्व के बारे मैं जानों, और तब नारद जी प्रणाम करके वहाँ से चल दिये। 

कुछ देर बाद वो दोनों गण नारद जी के पास गए 

और उनके आगे हाथ जोड़ कर क्षमा प्रार्थना करने लगे, नारद जी ने कहाँ की जो मैं श्राप दे चुका हु वो हट तो नहीं सकता लेकिन साथ ही तुम्हे एक वरदान भी दे देता हु कि तुम भले हि असुर योनी मैं आऔगे लेकिन तुम्हारा ज्ञान सर्व श्रेष्ठ होगा। 

और पूरी पृथ्वी पर भी तुम्हारा नाम, यश एश्वेर्ये से परिपूर्ण, सबसे विजयी रहोगे, ऐसा वरदान सुन कर दोनों बड़े प्रसन्न हुए और नारद जी को प्रणाम करके निकल गए।

नारद मोह की कथा narad moh ki katha