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बुधवार, 14 अगस्त 2024

पूरुंजन उपाख्यान raja puranjan ki katha | PART-1

 पूरुंजन उपाख्यान raja puranjan ki katha | PART-1

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आदरणीय वंदनीय पूजनीय श्री गुरुदेव जी भगवान के श्री चरणों में मेरा नतमस्तक कोटि कोटि प्रणाम चरण स्पर्श वंदना - आप समस्त भगवत प्रेमियों को भी मेरा प्रणाम

पूरुंजन उपाख्यान

पुरंजन का अर्थ होता है आत्मा जीवात्मा अर्थात् : जो जीवात्मा आत्मा में निवास करे परमात्मा का चिंतन करें वही श्रेष्ठ हैं, जो विषय भोगों में लिप्त रहें वह जीवात्मा सदैव भटकते ही रहते हैं।

अविज्ञात का अर्थ होता हैं जो नाम से तो जाना जाएं किंतु उसे फिर भी उत्तम तरह से भली भांति प्रकार से जाना कभी न जाएं, तथा जिसे जानकर भी अनजान हो सदैव उसे ही अविज्ञात कहते हैं।


मेरी दृष्टि में अविज्ञात का दूसरा स्वरूप हैं जो सदैव मोह माया की वायु के प्रभाव से सुरक्षा प्रदान करता हैं एक रक्षक बनकर।

तेजस्वी किरण जो चमकती हुई सी प्रतीत होती हैं की सर्व सुख यही हैं वास्तव में वह तो केवल नेत्रों एवं सोच विचारों का भ्रम हैं जिसमें भ्रमित हो व्यक्ति भटकता ही रहता हैं।

अविज्ञात ही है जो इन समस्त बाधाओं से बचाने का कार्य करता हैं जो नित्य उपदेश तथा निर्देश प्रदान करता हैं। जो सही गलत अच्छे बुरे की पहचान कराए वही अविज्ञात हैं जो सदैव यह ज्ञात कराए कि हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या हैं? क्या नही?

हमें क्या करना चाहिए क्या नही?
वही हमारा भी मित्र अविज्ञात हैं?

विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति के लिए मोह तथा कर्म बंधन से मुक्त होने के लिए श्री देवर्षि नारद जी से जब प्राचीनबर्हि राजा ने प्रार्थना की थी तब श्री देवर्षि नारद ने पुरंजन कथा उन्हें सुनाई थी।

यथार्थ में पुरंजन का अर्थ होता हैं जो पुर्व तत्पर पुनर्जन्म बार बार जन्म लेकर संसारी मोह माया में भटकता रहें यही पुरंजन हैं।

पुरंजन एवं अविज्ञात दोनों घनिष्ठ मित्र थे यह दोनों मित्र में अत्यधिक प्रेम स्नेह था दोनों में विश्वास ऐसा था जैसे मित्र नहीं अपितु भाई ही हो, एक दूसरे को स्वयं से अधिक समझते मान सम्मान देते, एक दूसरे की सुनते,
दोनों साथ साथ रहते प्रसन्न हो आनंद से जीवन व्यतीत करते थे। 

जहां भी जाते दोनों साथ ही जाते थे, भोजन करते तो दोनों साथ में भोजन करते थे, उनके प्रत्येक कार्य में दोनों साथ रहते थे। 

तभी एक दिन यह दोनों भ्रमण यात्रा के लिए प्रस्थान करने लगे चलते चलते एक समय तब पुरंजन ने अपने मित्र से यह कहा की मित्र मैं कुछ समय के लिए भ्रमण करना चाहता हूं कुछ नगर का दृश्य कुछ गांव का दृश्य कुछ प्रकृति का सुंदर दृश्य सृष्टि के दृश्य को देखना चाहता हूं। 

तब पुरंजन के मित्र अविज्ञात ने कहा मित्र पुरंजन तुम जा रहे हो अकेले तो तो सुनो मित्र क्या प्राप्त होगा तुम्हें भ्रमण करने से, क्या देखोगे तुम दृश्य में, आज तक हम जहां भी गए साथ रहें चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं, तो पुरंजन ने कहां मित्र मैं जानता हूं हम कभी अकेले नहीं गए किंतु अब मैं जाना चाहता हूं। 

कृपया तुम मुझे जाने दो, अविज्ञात ने बहुत समझाया किंतु तब भी पुरंजन ने कहां मित्र मैं जाना ही चाहता हूं तुम प्रसन्न होकर मुझे स्वीकृति दो, मुझे अकेले ही भ्रमण करने की अभिलाषा हैं बहुत समझाने पर भी जब नही समझा पुरंजन तो अविज्ञात मित्र ने कहां उचित है तुम जाना चाहते हो तो जाओ। 

किंतु इस बात का स्मरण रखना की तुम जा तो रहे हों किंतु शीघ्र ही लौट कर आ जाना क्योंकि तुम यह सदैव स्मरण रखना की मैं तुम्हारी प्रतीक्षा यही इसी स्थान पर रहकर कर रहा हूं। 

तब पुरंजन ने कहां उचित है मित्र मैं आता हूं तत्पश्चात पुरंजन ने प्रस्थान किया अकेले ही भ्रमण किया हजारों गांव शहर नगर प्रकृति का समस्त दृश्य देखा किंतु फिर भी वह निरंतर भ्रमण यात्रा करता ही रहा मन की तृप्ति कही नही हुई।

तत्पश्चात् उसकी दृष्टि एक सुन्दर नगर में गई

वह नगर नौ द्वारों से युक्त था तथा नौ द्वार के उस शहर में जैसे ही पुरंजन ने जब प्रवेश किया तो वैसे ही उसे सर्वप्रथम अति सुंदर सौंदर्य से परिपूर्ण स्त्री दिखाई दी जो उस नगरी की रानी थी तथा जैसे ही उस सुंदर स्त्री को देखा तो पुरंजन उस पर अत्यंत मोहित हो गया। 

पुरंजन ने समीप जाकर पूछा देवी तुम कौन हो?

तुम अति सुंदर लग रही हो तब रानी राजकुमारी ने कहां जो प्रश्न आप कर रहे हो वो मुझे भी नही स्मरण मैं कौन हूं? मेरी उत्पत्ति कैसे हुई? मेरा आगमन कहां से हुआ? मुझे कुछ भी स्मरण नही हैं, तो पुरंजन ने पूछा तुम यहां अकेली रहती हो?

रानी ने कहां हां मैं अकेली रहती हूं। पुरंजन ने पूछा तुम्हारा विवाह तो रानी ने कहां नहीं हुआ विवाह अभी
पुरंजन ने कहां रानी तुम मुझे अत्यधिक पसंद हो क्या तुम मुझसे विवाह करोगी।

रानी ने कहां हां मुझे भी तुम पसंद आ गए हों। तुम मुझसे विवाह कर लो मेरी स्वीकृति हैं। किंतु तुम्हारा नाम तो रानी ने कहां मुझे मेरा नाम का स्मरण नही है तो पुरंजन ने कहां उचित हैं कोई बात नही आज से तुम्हारा नाम पुरंजनी तथा मेरा नाम पुरंजन हैं मेरे नाम से ही तुम्हारा नाम जाना जाएगा। 

तुम मेरी पत्नी बन जाओ हम दोनों विवाह कर लेते हैं तत्पश्चात् दोनों ने विवाह कर लिया दोनों एक साथ रहने लगे पुरंजन पुरंजनी से अत्यधिक प्रेम करने लगा कि जो पुरंजनी कहती वह वो उसकी बात मान लेता वो चाहे कुछ नहीं भी कहें तो भी उसे देखकर इशारे मात्र से उसकी बात समझने लगा उसके समस्त कार्य करने में अपना योगदान प्रदान करता रहता उसकी प्रत्येक अभिलाषा पूर्ण करता रहता।

उसके लिए उसकी प्रसन्नता के लिए सदैव कुछ उत्तम करता तथा जो पुरुंजनी कहती वही पुरंजन करता यही उसका कर्म रहने लगा।

क्योंकि जब कोई भी व्यक्ति कामातुर परिस्थिति का शिकार हो जाता हैं तो यह सत्य है की कामातुर व्यक्ति की स्वयं की कोई स्थिति शेष नहीं रहती अपितु वह काम के वशीभूत होकर स्त्री तथा पुरुष के आधीन होकर ही रह जाता हैं।

जिस नगर में पुरंजन पुरंजनी रहते थे उस नगर में एक पांच फन का का सर्प विद्यमान रहता हैं
उस स्थान पर दस सैनिक तथा एक सेनापति रहते हैं जो इस स्थान नगर की देखभाल तथा सुरक्षा में सदैव तत्पर रहते हैं।

जो पंच मुख सर्प नागराज हैं वह रात दिन बिना विश्राम किए जाग्रत अवस्था में उपस्थित होकर परिक्रमा पहरे पर लगा रहता था तथा जो सैनिक इत्यादि हैं वह भी अपने कर्तव्य सेवा के प्रति निष्ठावान हो यथाविधि पालन करते रहते थे।

साथ ही पुरंजन पुरंजनी अपने जीवन में खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे थे जिसमें दोनों सुखी थे, पुरंजन की दशा ऐसी हो गई थी की पुरंजनी जब प्रसन्न हो तो पुरंजन भी प्रसन्न हो जाता था, पुंरजनी भोजन करे तो पुरंजन भी भोजन खाएं।  पुरंजनी सोए तो पुरंजन भी सोए।

पुरंजनी जब रुदन करें रोती हैं तो पुरंजन भी रोने लगता था।

 पुरुंजनी भ्रमण करें तो पुरंजन भी करें, पुरंजनी बैठे तो पुरूंजन भी बैठ जाता था। पुरुंजनी उपस्थित हो तो पुरूंजन भी खड़े हो जाता था। पुरुंजन का स्वयं का कोई वर्चस्व नही रहा वह पूर्ण रूप से पुरंजनी के अनुसार ढलने लगा, चलने लगा। 

पुरुंजनी जब आनंदित हो नृत्य करती तो पुरंजन भी उसके साथ नृत्य करने लगता था। मानो -जैसे पुरुंजन पुरुंजनी के हाथ की कठपुतली बन गया हो जैसे वो नचाए पुरंजन वैसे ही नाचे।